मानसी मिश्रा
पांच साल पहले की बात है. उस रात घर पर नितांत अकेलापन था. मैं ऑफिस से लौटकर आई तो थकान से सिर भारी था. गले में खराश थी और आंखें जल रही थीं. मैंने गर्म पानी पिया तभी कुछ कुछ भूख महसूस होने लगी. जल्दी से फ्रिज से निकालकर सेव खाया. देखा तो उसमें सुबह के बने चावल और सब्जी रखे थे. फ्रिज से दोनों चीजें बाहर निकालीं और ठंडा खाना ही खा लिया. अब आंखों में नींद तारी थी, चुपचाप रात के आठ बजे ही सो गई.
फोटो: गूगल से साभार
वही करीब दो बजे का वक्त था, अचानक आंख खुल गई. बेहोशी का अजीब- सा आलम था, एकबारगी लगा जैसे मेरी मौत हो चुकी है. शरीर में है.जान हींं नहीं बची,
उसी मेर मन में ख्याल आया कि दुनिया में हमारी मौजूदगी इस जिस्म से ही तो मानी जाती है. एक दिन जब इंसान मर जाता है तो उसका जिस्म इसी तरह तो शून्य हो जाता है. फिर उसे उठाकर जला या दफना दिया जाता है. कितना नेगेटिव और हिंसक होता है वो पल जब आपका शरीर किसी गड्ढे में पड़ा होता है और कोई आपकी आंखों और नाक के ठीक बीच में मिट्टी डाल रहा होता है. या कितना दर्दनाक होता है जब आप लकड़ियों के ढेर में जलने का इंतजार कर रहे होते हैं. ये सब सोचकर मन कांप गया. फिर कैसे अपने को समझाया कि अरे, कोई महसूस थोड़े न करता है कि उसके साथ कौन सा तरीका अपनाया जा रहा है. उफ, ये क्या सोच रही हूं मैं.... ये सब सोचकर मुझे घंटों नींद नहीं आई थी. फिर महीनों हमारे जिस्मों की मौत के बारे में मैं सिलसिलेवार सोचती रही. जीवनचक्र का ये अजीबोगरीब फैसला जहां आप गैर की मौजूदगी पर अपना हक जमाते हैं, लेकिन आपको अपने जीते रहने का कोई पता नहीं होता.
इन सब थॉट्स में रहने के दौरान जो बात मुझे बहुत ज्यादा महसूस हुई थी वो था प्यार और साथ, उस प्यार में डूबते जाने तक का जुनून.... जो जिस्मों की मौत के बाद इंसान को खोखला कर देता है.
हॉलीवुड की एक मूवी Bridge to terapethia देखकर मैंने मौत के डर को और भी भयानक तरीके से महसूस किया. फिल्म में मुख्य किरदार वाले बच्चे की एक दोस्त उसकी ज़िन्दगी में आकर उसे बदल देती है, लेकिन अचानक उसका चले जाना... ओह दुखद।
कोई भी वो मौत जो आपके बहुत करीब में होती है, वो आपके जिस्म को आधा खत्म करके जाती है. बर्हिगामी और अंतर्गामी यात्राओं के तमाम पड़ावों में भी जिस्मानी मौत के बाद की दुनिया खाली रहती है. वो डिप्रेशन शायद दुनिया का सबसे बड़ा डिप्रेशन होता है जब आप उस एक खालीपन के पीछे भागते भागते एक दिन उसी खालीपन में समा जाते हैं. हर कोई कहता रहता है कि नहीं मौत के बाद का खालीपन भरता जाता है, एक दिन भर जाता है. नहीं याद रहता कोई, सब बदल जाता है. लेकिन नहीं, ऐसा होता नहीं है. उन तमाम ख्यालों ने मुझे अचानक उस तरफ मोड़ दिया था जहां इंसान इसी कोशिश में रहता है कि कोई भी उसे खालीपन न दे. वो अपने आप में पूर्ण होने की अनंत यात्रा में चलने लगता है. ऐसी यात्रा जहां वो सिर्फ खोने के गम से बचने के लिए खुद को तैयार करने में जुटा रहता है.
एक दिन उसे ये डर मौत से बड़ा डर लगने लगता है....
हॉलीवुड की एक मूवी Bridge to terapethia देखकर मैंने मौत के डर को और भी भयानक तरीके से महसूस किया. फिल्म में मुख्य किरदार वाले बच्चे की एक दोस्त उसकी ज़िन्दगी में आकर उसे बदल देती है, लेकिन अचानक उसका चले जाना... ओह दुखद।
कोई भी वो मौत जो आपके बहुत करीब में होती है, वो आपके जिस्म को आधा खत्म करके जाती है. बर्हिगामी और अंतर्गामी यात्राओं के तमाम पड़ावों में भी जिस्मानी मौत के बाद की दुनिया खाली रहती है. वो डिप्रेशन शायद दुनिया का सबसे बड़ा डिप्रेशन होता है जब आप उस एक खालीपन के पीछे भागते भागते एक दिन उसी खालीपन में समा जाते हैं. हर कोई कहता रहता है कि नहीं मौत के बाद का खालीपन भरता जाता है, एक दिन भर जाता है. नहीं याद रहता कोई, सब बदल जाता है. लेकिन नहीं, ऐसा होता नहीं है. उन तमाम ख्यालों ने मुझे अचानक उस तरफ मोड़ दिया था जहां इंसान इसी कोशिश में रहता है कि कोई भी उसे खालीपन न दे. वो अपने आप में पूर्ण होने की अनंत यात्रा में चलने लगता है. ऐसी यात्रा जहां वो सिर्फ खोने के गम से बचने के लिए खुद को तैयार करने में जुटा रहता है.
एक दिन उसे ये डर मौत से बड़ा डर लगने लगता है....